Saturday 16 February 2013

ऊर्जा जग को मूल - डॉ. रमेश पाण्डेय


                           ऊर्जा जग को मूल

                                  डॉ. रमेश पाण्डेय

          सुंदरेसन पशुपालन एवं दुग्धविज्ञान विद्यालय ,                    

   शिआट्स(विश्वविद्यालयवत ), नैनी, इलाहाबाद- -211007


 ऊर्जा वस्तु नहीं है। इसको हम देख नहीं सकते, यह कोई स्थान नहीं घेरती और न ही इसकी कोई छाया  पड़ती है। अन्य वस्तुओं की भाँति ऊर्जा द्रव्य नहीं है, तथापि द्रव्य से बहुधा इसका घनिष्ठ संबंध रहता है। इन कारणों से ऊर्जा की सरल परिभाषा देना सहज नहीं है। वस्तुतः ऊर्जा का अस्तित्व उतना ही वास्तविक है जितना किसी अन्य वस्तु का क्योंकि किसी पिंड,जिसके ऊपर किसी बाह्य बल का प्रभाव नहीं रहता, की ही तरह ऊर्जा की मात्रा में भी कमी अथवा वृद्धि नहीं होती। सामान्य रूप में किसी भी कार्यकर्ता के कार्य  करने की क्षमता को ही ऊर्जा (Energy) कहते हैं।वैशेषिक दर्शन के अनुसार 'ऊर्जा' / तेज एक तीव्र  चमक युक्त पदार्थ है जो प्रकृतितः आणविक है। ऊर्जा का एक महत्त्वपूर्ण गुण ऊष्णीय उत्तेजना प्रदान करना है, अत: कोई भी पिण्ड जो इसके साथ संयोग करता है, उच्च तापमान प्रदर्शित करता है। तेज का संयोग कर्म / गति में परिवर्तन ले आता है।समस्त रासायनिक अभिक्रियाएँ, ऊर्जा /तेज की मात्रा के संयोग के कारण होती है। साधारणत: कार्य कर सकने की क्षमता ही ऊर्जा है।

भौतिकी में किसी वस्तु या तंत्र में निहित कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं। भौतिक विज्ञान में ऊर्जा की व्याख्या क्रमशः ऊष्मा, तापमान तथा रंगों के माध्यम से होती है। लोहे की छड़ की चुम्बक की ओर गति का अदृष्य कारण तथा  विद्युत का प्रभाव आदि भी ऊर्जा के  ही अलग-अलग रूप हैं।उर्जा का विस्तृत अध्ययन ही आधुनिक भौतिक विज्ञान के विकास का प्रमुख कारण है।
ऊर्जा के विभिन्न रूप /प्रकार तथा मानक:जब धनुष से शिकार करनेवाला कोई शिकारी धनुष को झुकाता है तो धनुष में ऊर्जा आ जाती है जिसका उपयोग बाण को शिकार तक पहुँचाने में किया जाता है। बहते हुए पानी में ऊर्जा होती है जिसका उपयोग पनचक्की चलाने  अथवा किसी दूसरे कार्यों हेतु किया जाता है। बारूद में ऊर्जा होती है, जिसका बन्दूक से गोली दागने में या पत्थर की शिलाएँ तोड़ने अथवा तोप से गोला दागने में प्रयोग किया जाता है। बिजली की धारा में ऊर्जा होती है जिससे बिजली की मोटर चलाई जा सकती है। सूर्य के प्रकाश में ऊर्जा होती है जिसका उपयोग प्रकाश सेलों द्वारा बिजली की धारा उत्पन्न करने में किया जा सकता है। ऐसे ही अणु बम में नाभिकीय ऊर्जा रहती है जिसका उपयोग शत्रु का विध्वंस करने अथवा अन्य कार्यों में किया जाता है।
ऊर्जा कई रूपों में पाई जाती है। झुके हुए धनुष में जो ऊर्जा है उसे स्थितिज ऊर्जा , बहते पानी की ऊर्जा को गतिज , बारूद की ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा , विद्युत धारा की ऊर्जा को वैद्युत ऊर्जा तथा सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को प्रकाश ऊर्जा कहते हैं। सूर्य की ऊर्जा उसके उच्च ताप के कारण होती  है अतः इसे उष्मा ऊर्जा भी कहते हैं।
विभिन्न उपायों द्वारा ऊर्जा को एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। इन परिवर्तनों में ऊर्जा की मात्रा सर्वदा एक ही रहती है। उसमें वृद्धि अथवा न्यूनता नहीं होती। इसे ही ऊर्जा-अविनाशिता का सिद्धांत कहते हैं।
सामान्य परिभाषा के अनुसार कार्य कर सकने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं। परंतु सारी ऊर्जा को कार्य में परिणत करना सर्वदा संभव नहीं होता। इसलिए यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि ऊर्जा वह वस्तु है जो उतनी ही घटती है जितना कार्य होता है। इस कारण ऊर्जा को मापने के वे ही एकक होते हैं जो कार्य को मापने के। यदि हम एक किलोग्राम भार को एक मीटर ऊँचा उठाते हैं तो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध एक विशेष मात्रा में कार्य करना पड़ता है। यदि हम इसी भार को दो मीटर ऊँचा उठाएँ अथवा दो किलोग्राम भार को एक मीटर ऊँचा उठाएँ तो दोनों दशाओं में पहले की अपेक्षा दो गुणा कार्य करना पड़ेगा। इससे प्रकट होता है कि कार्य का परिमाण उस बल के परिमाण पर, जिसके विरुद्ध कार्य किया जाए, और उस दूरी के परिमाण पर, जिस दूरी के द्वारा उस बल के विरुद्ध कार्य किया जाए, निर्भर रहता है तथा इन दोनों परिमाणों के गुणनफल के बराबर होता है।
कार्य की किसी भी मात्रा को हम कार्य का एकक मान सकते हैं। उदाहरणत: एक किलोग्राम भार को पृथ्वी के आकर्षण के विरुद्ध एक मीटर ऊँचा उठाने में जितना कार्य करना पड़ता है उसे एकक माना जा सकता है। परंतु पृथ्वी का आकर्षण सब जगह एक समान नहीं होता। इसका जो मान इलाहाबाद में है वह मंगलुरु में नहीं है। इसलिए यह एकक असुविधापूर्ण है। फिर भी बहुत से देशों में इंजीनियर ऐसे ही एकक का उपयोग करते हैं। जिसे फुट-पाउंड कहते हैं। यह उस कार्य की मात्रा है जो लंदन के अक्षांश में समुद्र तट पर एक पाउंड के पिंड को एक फुट तक स्थान्तरित करने में प्रयुक्त होता है।अन्य विभिन्न देशों में  एक दूसरे  एकक का प्रयोग किया जाता है जो सेंटीमीटर-ग्राम-सेंकड के ऊपर निर्भर  होता है। इसमें बल के एकक को "डाइन" (Dyne) कहते हैं। डाइन बल का वह एकक है जो एक ग्राम के पिंड में एक सेकंड में एक सेंटीमीटर प्रति सेकंड का वेग उत्पन्न कर सकता है। इस बल के क्रियाबिंदु को इसके विरुद्ध एक सें. मी. हटाने में जितना कार्य करना पड़ता है उसे वर्ग कहते हैं। परंतु व्यावहारिक दृष्टि से कार्य का यह एकक बहुत छोटा है। अतएव दैनिक व्यवहार में एक दूसरा एकक उपयोग में लाया जाता है। इसमें लंबाई का एकक सेंटीमीटर के स्थान पर मीटर है तथा द्रव्यमान का एकक ग्राम के स्थान पर किलोग्राम है। इसमें बल का एकक "न्यूटन" है। न्यूटन बल का वह एकक है जो एक किलोग्राम के पिंड में एक सेकंड में एक मीटर प्रति सेकंड का वेग उत्पन्न कर सकता है। इस तरह न्यूटन 100000 डाइन के बराबर होता है। इस बल के क्रियाबिंदु को उसके विरुद्ध एक मीटर तक हटाने में जितना कार्य करना पड़ता है उसे जूल कहते हैं। एक जूल 10E7 अर्गों के बराबर होता है।ऊर्जा को प्रायः इन्हीं एककों में नापा जाता है। परंतु कभी कभी विशेष स्थलों पर कुछ अन्य एककों का उपयोग होता है। इनमें एक इलेक्ट्रान वोल्ट भी है। वह ऊर्जा का वह एकक है जिसे इलेक्ट्रान  वोल्ट के विभवांतर (पोटेंशियल डिफ़रेंस) से गुजरने पर प्राप्त करता है। यह बहुत छोटा एकक है और केवल 1.60E-19 जूल के बराबर होता है। इसके अतिरिक्त घरों में उपयोग में आनेवाली वैद्युत ऊर्जा को नापने के लिए एक दूसरे एकक का उपयोग होता है, जिसे किलोवाट-घंटा (KWh) कहते हैं और जो 3.6E6 जूलों के बराबर होता है।  ऊर्जा के सामान्य रूप:
क.यांत्रिक ऊर्जा:उन वस्तुओं की अपेक्षा, जिनके अस्तित्व का अनुमान हम केवल तर्क के आधार पर कर सकते हैं, हमें उन वस्तुओं का ज्ञान अधिक सुगमता से होता है जिन्हें हम स्थूल रूप से देख सकते हैं। मनुष्य के मस्तिष्क में ऊर्जा के उस रूप की भावना सबसे प्रथम उदय हुई जिसका संबंध बड़े बड़े पिंडों से है और जिसे यंत्रों की सहायता से कार्यरूप में परिणात होते हम स्पष्टत: देख सकते हैं। इस यांत्रिक ऊर्जा के दो रूप हैं : एक स्थितिज ऊर्जा एवं दूसरा गतिज ऊर्जा। इसके विपरीत उस ऊर्जा का ज्ञान जिसका संबंध अणुओं तथा परमाणुओं की गति से है, मनुष्य को बाद में हुआ। इस कारण यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि न्यूटन से भी पहले फ्रांसिस बेकन की यह धारणा थी कि उष्मा द्रव्य के कणों की गति के कारण है।
1.स्थितिज ऊर्जा:एक किलोग्राम भार के एक पिंड को पृथ्वी के आकर्षण के विरुद्ध एक मीटर ऊँचा उठाने में जो कार्य करना पड़ता है उसे हम किलोग्राम-मीटर कह सकते हैं और यह लगभग 981 जूलों के बराबर होता है। यदि हम एक डोर लेकर ओर उसे एक घिरनी के ऊपर डालकर उसके दोनों सिरों से लगभग एक किलोग्राम के पिंड बाँधे और उन्हें ऐसी अवस्था में छोड़ें कि वे दोनों एक ही ऊँचाई पर न हों और ऊँचे पिंड को बहुत धीरे-से नीचे आने दें तो हम देखेंगे कि एक किलोग्राम के पिंड को एक मीटर ऊँचा उठा देगा। घिरनी में घर्षण जितना ही कम होगा दूसरा पिंड भार में उतना ही पहले पिंड के भार के बराबर रखा जा सकेगा। इसक अर्थ यह हुआ कि यदि हम किसी पिंड को पृथ्वी से ऊँचा बढ़ जाती है। एक किलोग्राम भार के पिंड को यदि 5 मीटर ऊँचा उठाया जाए तो उसमें 5 किलोग्राम-मीटर कार्य करने की क्षमता आ जाती है, एवं उसकी ऊर्जा पहले की अपेक्षा उसी परिमाण में बढ़ जाती है। यह ऊर्जा पृथ्वी तथा पिंड की आपेक्षिक स्थिति के कारण होती है और वस्तुत: पृथ्वी एवं पिंड द्वारा बने तंत्र (सिस्टम) की ऊर्जा होती है। इसीलिए इसे स्थितिज ऊर्जा कहते हैं। जब कभी भी पिंडों के किसी समुदाय की पारस्परिक दूरी अथवा एक ही पिंड के विभिन्न भागों की स्वाभाविक स्थिति में अंतर उत्पन्न होता है तो स्थितिज ऊर्जा में भी अंतर आ जाता है। कमानी को दबाने से अथवा धनुष को झुकाने से उनमें स्थितिज ऊर्जा आ जाती है। नदियों में बाँध बाँधकर पानी को अधिक ऊँचाई पर इकट्ठा किया जाए तो इस पानी में स्थितिज ऊर्जा आ जाती है।
2.गतिज ऊर्जा:न्यूटन ने बल की यह परिभाषा दी कि बल संवेग (मोमेंटम) के परिवर्तन की दर के बराबर होता है। यदि m किलोग्राम का कोई पिंड प्रारंभ में स्थिर हो और उसपर एक नियत बल F, t सेंकड तक कार्य करके जो वेग उत्पन्न करे उसका मान v मीटर प्रति सेकंड हो तो बल का मान   न्यूटन होगा। इसी समय में पिंड जो दूरी तै करे वह यदि d मीटर हो तो बल द्वारा किया गया कार्य F.d जूल के बराबर होगा।
अर्थात m द्रव्यमानवालें पिंड का वेग यदि v हो तो उसकी ऊर्जा   होगी। यह ऊर्जा उस पिंड में उसकी गति के कारण होती है और गतिज ऊर्जा कहलाती है। जब हम धनुष को झुकाकर तीर छोड़ते हैं तो धनुष की स्थितिज ऊर्जा तीर की गतिज ऊर्जा मे परिवर्तन हो जाती है।
स्थितिज ऊर्जा एवं गतिज ऊर्जा के पारस्परिक परिवर्तन का सबसे सुंदर उदाहरण सरल लोलक है। जब हम लोलक के गोलक को एक ओर खींचते हैं तो गोलक अपनी साधारण स्थिति से थोड़ा ऊँचा उठ जाता है और इसमें स्थितिज ऊर्जा आ जाती है। जब हम गोलक को छोड़ते हैं तो गोलक इधर उधर झूलने लगता है। जब गोलक लटकने की साधारण स्थिति में आता है तो इसमें केवल गतिज ऊर्जा रहती है। संवेग के कारण गोलक दूसरी ओर चला जाता है और गतिज ऊर्जा पुन: स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। साधारणत: वायु के घर्षण के विरुद्ध कार्य करने से गोलक की ऊर्जा कम होती जाती है और इसकी गति कुछ देर में बंद हो जाती है। यदि घर्षण का बल न हो तो लोलक अनंत काल तक चलता रहेगा।ख.ऊष्मा ऊर्जा:गति विज्ञान में ऊर्जा अविनाशिता सिद्धांत  के प्रमाणित हो जाने के बाद भी इसके दूसरे स्वरूपों का ज्ञान न होने के कारण यह समझा जाता था कि कई स्थितियों में ऊर्जा नष्ट भी हो सकती है; जैसे, जब किसी पिंडसमुदाय के विभिन्न भागों में अपेक्षिक गति हो तो घर्षण के कारण स्थितिज और गतिज ऊर्जा कम हो जाती है। वस्तुत: ऐसी स्थितियों में ऊर्जा नष्ट नहीं होती वरन् उष्मा ऊर्जा में परिवर्तन हो जाती है। परंतु 18वीं शताब्दी तक उष्मा को ऊर्जा का ही एक स्वतंत्र स्वरूप नहीं समझा जाता था। उस समय तक यह धारणा थी कि उष्मा एक द्रव्य है। 19वीं शताब्दी में प्रयोगों द्वारा यह निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दिया गया कि उष्मा भी ऊर्जा का ही एक दूसरा रूप है।यों तो प्रागैतिहासिक काल में भी मनुष्य लकड़ियों को रगड़कर अग्नि उत्पन्न करता था, परंतु ऊर्जा एवं उष्मा के घनिष्ठ संबंध की ओर सबसे पहले बेंजामिन टामसन (काउंट रुमफर्ड) का ध्यान गया। यह संयुक्त राज्य (अमरीका) के मैसाचूसेट्स प्रदेश का रहनेवाला तथा उस समय  बवेरिया के राजा का सेनापति था। ढली हुई पीतल की तोप की नलियों को छेदते समय इसने देखा कि नली बहुत गर्म हो जाती है तथा उससे निकले बुरादे और भी गरम हो जाते हैं। एक प्रयोग में तोप की नाल के चारों ओर काठ की नाँद में पानी भरकर उसने देखा कि खरादने से जो उष्मा उत्पन्न होती है उससे ढाई घंटे में सारा पानी उबलने के ताप तक पहुँच गया। इस प्रयोग में उसका वास्तविक ध्येय यह सिद्ध करना था कि उष्मा कोई द्रव नहीं है जो पिंडों में होती है और दाब के कारण वैसे ही बाहर निकल आती है जैसे निचोड़ने से कपड़े में से पानी; क्योंकि यदि ऐसा होता तो किसी पिंड में यह द्रव एक सीमित मात्रा में ही होता, परंतु छेदनेवाले प्रयोग से ज्ञात होता है कि जितना ही अधिक कार्य किया जाए उतनी ही अधिक उष्मा उत्पन्न होगी। रुमफर्ड ने यह प्रयोग सन् 1798 ई. में किया। सन् 1819 में फ्रांसीसी वैज्ञानिक ड्यूलों ने देखा कि किसी गैस के संपीडन से उसमें उष्मा उसी अनुपात में उत्पन्न होती है जितना संपीडन में कार्य किया जाता है। सन् 1842 ई. में इसका उपयोग जूलियस राबर्ट मेयर ने 28 वर्ष की आयु में जब वह जर्मनी के हाइलब्रॉन नगर में डॉक्टर था, इस बात की गणना के लिए किया कि एक कैलोरी उष्मा उत्पन्न करने के लिए कितना कार्य आवश्यक है। प्रत्येक गैस की दो विशिष्ट उष्माएँ होती है : एक नियत आयतन पर तथा दूसरी नियत दाब पर। पहली अवस्था में गैस कोई कार्य नहीं करती। दूसरी अवस्था में गैस को बाह्य दबाव के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है और दोनों विशिष्ट उष्माओं में जो अंतर होता है वह इसी कार्य के समतुल्य होता है। इस प्रकार मेयर को उष्मा के यांत्रिक तुल्यांक का जो मान प्राप्त हुआ वह लगभग उतना ही था जितना काउंट रुमफ़ोर्ड को प्राप्त हुआ था।
इसी समय इंग्लैंड में जेम्स प्रेसकाट जूल भी उष्मा का यांत्रिक तुल्यांक निकालने में लगा हुआ था। इसके प्रयोग सन् 1842 ई. से सन् 1852 ई. तक चलते रहे। अपने प्रयोग में इसने एक ताँबे के उष्मामापी में पानी लिया और उसे एक मथनी से मथा। मथनी को दो घिरनियों पर से लटके हुए दो भारों पर चलाया जाता था। जिस डोर से ये भार लटके हुए थे वह इस मथनी के सिरे में लपेटी हुई थी और जब ये भार नीचे की ओर गिरते थे तो मथनी घूमती थी। जब ये भार नीचे गिरते थे तो इनकी स्थितिज ऊर्जा कम हो जाती थी। इस कमी का कुछ भाग भारों की गतिज ऊर्जा में परिणत होता था और कुछ भाग मथनी को घुमाने में व्यय होता था। इस तरह यह ज्ञात किया जा सकता था कि मथनी को घुमने में कितना कार्य किया जा रहा था। उष्मामापी के पानी के ताप में जितनी वृद्धि हुई उससे यह ज्ञात हो सकता था कि कितनी उष्मा उत्पन्न हुई; और तब उष्मा का यांत्रिक तुल्यांक ज्ञात किया जा सकता था। जूल ने ये प्रयोग पानी तथा पारा दोनों के साथ किए।
सन् 1847 ई. में हरमान फान हेल्महोल्ट्स ने एक पुस्तक लिखी जिसमें उष्मा, चुंबक, बिजली, भौतिक रसायन आदि विभिन्न क्षेत्रों के उदाहरणों द्वारा उष्मा-अविनाशिता-सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया था। जूल ने अपने प्रयोग द्वारा वैद्युत ऊर्जा तथा उष्मा-ऊर्जा की समानता सिद्ध की।
द्रव्यमान तथा ऊर्जा की समतुल्यता:सन् 1905 ई. में आइन्स्टाइन ने अपना आपेक्षिक सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसके अनुसार कणों का द्रव्यमान उनकी गतिज ऊर्जा पर निर्भर रहता है।इसका यह अर्थ है कि ऊर्जा का मान द्रव्यमान वृद्धि को प्रकाश के वेग के वर्ग से गुणा करने पर प्राप्त होता है। इस सिद्धांत की पुष्टि नाभिकीय विज्ञान के बहुत से प्रयोगों द्वारा होती है। सूर्य में भी ऊर्जा इसी तरह बनती है। सूर्य में एक श्रृंखल क्रिया होती है जिसका फल यह होता है कि हाइड्रोजन के चार नाभिकों के संयोग से हीलियम का नाभिक बन जाता है। हाइड्रोजन के चारों नाभिकों के द्रव्यमान का योगफल हीलियम के नाभिक से कुछ अधिक होता है। यह अंतर ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है।परमाणु बम  एवं हाइड्रोजन बम में भी इसी द्रव्यमान-ऊर्जा-समतुल्यता का उपयोग होता है।ऊर्जा का क्वांटमीकरण (Quantization of energy):वर्णक्रम के विभिन्न वर्णों के अनुसार कृष्ण पिंड के विकिरण के वितरण का ठीक सूत्र क्या है, इसका अध्ययन करते हुए प्लांक इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि विकिरण का आदान प्रदान अनियमित मात्रा में नहीं होता प्रत्युत ऊर्जा के छोटे कणों द्वारा होता है। इन कणों को रहता है। आवृत्तिसंख्या को जिस नियतांक से गुणा करने पर ऊर्जाक्वांटम का मान प्राप्त होता है उसे प्लांक नियतांक कहते हैं।
नील्स बोर ने सन् 1913 ई. में यह दिखलाया कि यह क्वांटम सिद्धांत अत्यंत व्यापक है और परमाणुओं में इलेक्ट्रान जिन कक्षाओं में घूमते हैं। वे कक्षाएँ भी क्वांटम सिद्धांत के अनुसार ही निश्चित होती हैं। जब इलेक्ट्रान अधिक ऊर्जावाली कक्षा से कम ऊर्जावाली कक्षा में जाता है तो इन दो ऊर्जाओं का अंतर प्रकाश के रूप में बाहर आता है। हाइज़ेनबर्ग, श्रोडिंगर तथा डिराक ने इस क्वांटम सिद्धांत को और भी विस्तृत किया है।ऊर्जा के स्रोत :आधुनिक भौतिक विज्ञान में प्रत्येक कार्य के लिए ऊर्जा को आवश्यक बताया गया है । ऊर्जा संरक्षण सिद्धांत के अनुसार ऊर्जा को न तो जना जा सकता है और न तो नष्ट किया जा सकता है , केवल इसका स्वरूप बदला जा सकता है । हम अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करने हेतु ऊर्जा के इस्तेमाल कई रूपों में करते हैं, यथा - यांत्रिक ऊर्जा , विद्युत ऊर्जा, ऊष्मीय ऊर्जा, प्रकाश ऊर्जा, रसायनिक ऊर्जा इत्यादि । मोटर में विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में बदल कर काम लिया जाता है तो बैटरी में रासायनिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में। मानव शरीर खाद्य पदार्थों की रासायनिक ऊर्जा को पचा कर उससे यांत्रिक कार्य करता है । इसी प्रकार एक विद्युत बल्ब विद्युत ऊर्जा को प्रकाश तथा ऊष्मीय ऊर्जा में बदल देता है । कार या बस का ईंजन पेट्रोल की रासायनिक ऊर्जा को पहले ऊष्मीय ऊर्जा में बदलता है तथा उसे फिर यांत्रिक ऊर्जा में । इन सभी कार्यों के लिए प्रयुक्त ऊर्जा विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होती है यथा:·         कोयला·         पेट्रोलियम·         प्राकृतिक गैस·         पवन ऊर्जा·         सौर ऊर्जा·         तरंग अथवा समुद्री लहर ऊर्जा·         नदी घटी परियोजनाओं द्वारा उत्पादित ऊर्जा
ऊर्जा एवं औद्योगिक क्रांति:उर्जा की अवधारणा उन्नीसवीं शताब्दी में आयी। यह मानव द्वारा आविष्कृत एक अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं मौलिक अवधारणा है। यह विभिन्न प्रकार की घटनाओं में होने वाली अन्तर्क्रियाओं को संख्यात्मक रूप में व्यक्त करने में बहुत उपयोगी है। इसे एक तरह से विभिन्न भौतिक अभिक्रियाओं के बीच होने वाली अन्तःक्रियाओं के लिये उभयनिष्ट  मुद्रा की तरह समझा जा सकता है।उर्जा की अवधारणा से ही परिवर्धन (जैसे रसायन एवं धातुकर्म में) एवं संचरण सम्भव है जो कि औद्योगिक क्रांति के मूल आधार हैं। जब तक केवल मानव या पशु ऊर्जा से ही काम होता था, तब तक उर्जा सीमित थी; उसे स्वचालित एवं नियंत्रित करना कठिन कार्य था। किन्तु वाष्प आदि से चलने वाली मशीनों के आविष्कार से यह स्थिति बदल गयी तथा फलस्वरूप औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ।आधुनिक काल में किसी देश द्वारा खपत की जाने वाली उर्जा  ही उसके विकास की प्रमुख माप है।ऊर्जा सम्बंधित कुछ प्रमुख सूत्र:§  तने हुए स्प्रिंग की गतिज उर्जा
जहाँ k स्प्रिंग का बल नियतांक है तथा x स्प्रिंग का सामायावस्था की तुलना में कुल तनाव है।
§  आवेशित संधारित्र की उर्जा
जहाँ Q संधारित्र की प्लेटों पर एकत्र आवेश है; तथा C संधारित्र की धारिता है; U संधारित्र की प्लेटों के बीच विभवान्तर है।
§  द्रव्यमान एवं उर्जा की समतुल्यता
 द्रव्यमान एवं   वेग के मुक्त कण की सापेक्षिक उर्जा:
जहाँ   प्रकाश का वेग है।
§  फोटॉनों या प्रकाश क्वान्टा की उर्जा
जहाँ h प्लांक नियतांक है; तथा   फोटॉन की आवृत्ति है।§  भूकंप की उर्जा
 टन टी एन टी के समतुल्य
जहाँ M भूकम्प की तीव्रता ( रिक्टर पैमाने पर) है।§  कार्य या उर्जा में परिवर्तन, बल का दूरी के साथ इन्टीग्रल के बराबर होता है।
भारतीय दर्शन तथा इतिहास के परिदृश्य में ऊर्जा /तेज की व्याख्या एवं तत्संबंधित सन्दर्भ :भाष्यकार प्रशस्तपाद ने तेज के व्याख्यान प्रसंग में 'तेज' के चार प्रकार प्रतिपादित किये हैं। ये चार प्रकार उस तेज के ही स्व रूपान्तर हैं तथा  वे (1) भौम (2) दिव्य (3) उदर्य (4) तथा आकरज हैं ।
वैशेषिक दर्शन 'भौम' (terrestrial) और 'दिव्य' (celestial) को इसके स्रोत के रूप में निरुपित करता है। लकड़ी के  ईधन से उत्पन्न और ऊर्ध्व ज्वलन स्वभाव (लपट के साथ जलने वाला) वाले 'तेज' को भौम कहते हैं, और सूर्य, विद्युत आदि से प्राप्त 'तेज' को दिव्य कहते हैं। अन्य दो 'उदर्य' (abdominal) और 'आकरज' आधिभौतिक एवं पराभौतिक राशियों से सम्बन्धित हैं। तेज के बिना शरीर क्रिया कदापि संभव नहीं हो सकती, भोजनादि पाचनक्रिया का कारण रूप 'तेज' उदर्य कहा जाता है तथा सुवर्ण (gold) प्लेटिनम (platinum) धातुएँ 'आकरज' तेज कहलाती हैं।1 प्रशस्तपाद, -भाष्य (६०० ई. पू.), "तत्रशुक्लं भास्वरं च रूपम्। ऊष्ण एव स्पर्श: तदपि द्विधमणु कार्यभावात्।"
2 प्रशस्तपाद, -भाष्य (६०० ई. पू.), "घटादेरामद्रव्यस्याग्निना सम्बन्धस्याभिधानान्तोदनाद्वा तदारम्भकेष्वणुषु कर्मण्युत्पादयन्ते।"
3 प्रशस्तपाद, -भाष्य (६०० ई. पू.), "पुनरन्यस्मादग्नि संयोगादौष्ण्यापेक्षात् पाकजा जायन्ते।"
4 प्रशस्तपाद, -भाष्य (६०० ई. पू.), "भौमं दिव्यमुदर्यमाकरजं च। तत्र भौमं काष्ठेन्धन प्रभवमूर्ध्वज्वलनस्वभावं, पचन, दहन, स्वेदनादि समर्थ, दिव्यमविन्धनं, सौर, विद्युदादि।"
5 महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र ५-१-१५ (६०० ई. पू.), "मणि गमनं सुच्याभिसर्पणमदृष्टकारणम्।"
महर्षि गौतम, न्यायसूत्र ३-१-२३ (६०० ई. पू.), "अयसो अयस्कान्ताभिगमनवत्दुपसर्पणम्।"
6 अगस्त्य, -संहिता, शिल्पशास्त्रसार (११०० ई.) "संस्थाप्यमृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुशोभितम्। छादयोच्छिखिग्रिवेण चार्द्राभि: काष्ठपांसुभि:।।१।। दस्तालोष्ठो निधातव्य: पारदाच्छादितस्तत:। संयोगाज्जायते तेजो मैत्रावरुण संज्ञितम्।।२।। अनेन जल भंगोऽस्ति प्राणोदानेषु वायुषु। एवं शतानां कुम्भानां संयोग: कार्यकृत् स्मृत:।।३।। वायुबंधक वस्त्रेण निबद्धो यान मस्तके। उदान: स्वलघुत्वेन विभर्त्याकाश यानकम्।।४।।"ऊर्जा चिकित्सा:ब्रह्मांड की सकारात्मक चिकित्सकीय ऊर्जा किरणों को साधना/एकाग्रता के द्वारा प्राप्त करना, और उसका अपने जरूरत के अनुसार उपयोग करना ही ऊर्जा चिकित्सा का सीधा और सरल सा अर्थ है। ऊर्जा चिकित्सा के बारे में सर्वप्रथम जानकारी किसे, कब, कहाँ किन परिस्थितियों में मिली, यह अब तक विवादित पहलू है। प्रत्येक देश, धर्म ऊर्जा चिकित्सा की जन्मस्थली होने का दावा करते हैं।[ जिस प्रकार यह ब्रह्मांड किसी एक देश, जाति, धर्म का नहीं है, उसी तरह ऊर्जा चिकित्सा भी किसी एक की धरोहर नहीं है। यह ऊर्जा किसी एक नियम के अधीन नहीं है।"ऊर्जा चिकित्सा की जानकारी सर्वप्रथम एशियाई क्षेत्र को हुई, ऐसा माना जाता है। वेदों में, पाणिनी सूत्र में ऊर्जा चिकित्सा का उल्लेख मिलता है। वेदों के अनुसार ऊर्जा चिकित्सा को "प्राण शक्ति" का नाम दिया गया है।[यह प्राण शक्ति "वह" शक्ति है, जो जीव मात्र में सतत रूप से कार्यरत है और जिसके रूप बदल लेने पर शरीर का कार्य करना बन्द हो जाता है। इस तथ्य के अनुसार ऊर्जा चिकित्सा साक्षात ब्रह्म/ प्रकृति/ईश्वरीय शक्ति का रूप है। हमारे पुराणों, धार्मिक ग्रन्थों इत्‍यादि में भी ऊर्जा चिकित्सा का उल्लेख मिलता है, जिनके अनुसार ऋषि-मुनि, महात्मागण साधना के द्वारा संवाहित ऊर्जा के द्वारा जनमानस के चिकित्सा और परमार्थ का कार्य किया करते थे। इस पर कई सारी श्रुतियाँ कथायें, दन्त कथाएँ भी मिलती हैं।
लिखित रूप से इसका उल्लेख महात्मा बुद्ध के काल में रचित ग्रन्थों मे मिलता है। जिनके अनुसार महात्मा बुद्ध और उनके कुछ खास शिष्य अपने संकल्प शक्ति और स्पर्श से बीमारियों/परेशानियों का निदान करते थे। इन सभी प्रामाणिक वेदों-पुराणों और ग्रन्थों के अनुसार उस काल में इसे गुप्त और आध्यात्मिक विद्या माना जाता था। जिस कारण आम जनता को इस विद्या के बारे में जानकारी नहीं दी जाती थी। इस विद्या को जानने के लिये साधक को अपने तन मन से सम्पूर्ण तपस्या करनी होती थी
, तत्पश्चात महात्मा बुद्ध साधक को (जब वह साधक इस विद्या को ग्रहण करने योग्य लगता तो) उसको सुसंगत किया करते थे। अगर कहीं से भी महात्मा बुद्ध को ये लगता कि अभी "इस साधक" में इस दिव्य विद्या को ग्रहण करने कि योग्यता नहीं आ सकी है तो उस साधक को पुनः साधना करने की आज्ञा दी जाती थी। इस गुरू शिष्य परंपरा का निर्वाह अपने काल के प्रत्येक गुरूजनों ने किया, इसका कभी उल्लंघन हुआ हो, ऐसा विदित नहीं है। इस तरह से अति इच्छुक साधक ही इस विद्या को ग्रहण कर पाते थे। कालांतर में महात्मा बुद्ध के शिष्य भी इस नियम का पालन करते रहे एवं धीरे-धीरे इस दिव्य विद्या को ग्रहण वाले साधकों की संख्‍या में कमी होती गयी, तब एक ऐसा समय आया जब इस दिव्य विद्या के जानकार नहीं रहे तथा ऊर्जा चिकित्सा कालांतर में काल के गर्भ में खो गई।
लिखित रूप से इसका उल्लेख महात्मा बुद्ध के काल में रचित ग्रन्थों मे मिलता है। जिनके अनुसार महात्मा बुद्ध और उनके कुछ खास शिष्य अपने संकल्प शक्ति और स्पर्श से बीमारियों/परेशानियों का निदान करते थे। इन सभी प्रामाणिक वेदों-पुराणों और ग्रन्थों के अनुसार उस काल में इसे गुप्त और आध्यात्मिक विद्या माना जाता था। जिस कारण आम जनता को इस विद्या के बारे में जानकारी नहीं दी जाती थी। इस विद्या को जानने के लिये साधक को अपने तन मन से सम्पूर्ण तपस्या करनी होती थी, तत्पश्चात महात्मा बुद्ध साधक को (जब वह साधक इस विद्या को ग्रहण करने योग्य लगता तो) उसको सुसंगत किया करते थे। अगर कहीं से भी महात्मा बुद्ध को ये लगता कि अभी "इस साधक" में इस दिव्य विद्या को ग्रहण करने कि योग्यता नहीं आ सकी है तो उस साधक को पुनः साधना करने की आज्ञा दी जाती थी। इस गुरू शिष्य परंपरा का निर्वाह अपने काल के प्रत्येक गुरूजनों ने किया, इसका कभी उल्लंघन हुआ हो, ऐसा विदित नहीं है। इस तरह से अति इच्छुक साधक ही इस विद्या को ग्रहण कर पाते थे। कालांतर में महात्मा बुद्ध के शिष्य भी इस नियम का पालन करते रहे एवं धीरे-धीरे इस दिव्य विद्या को ग्रहण वाले साधकों की संख्‍या में कमी होती गयी, तब एक ऐसा समय आया जब इस दिव्य विद्या के जानकार नहीं रहे तथा ऊर्जा चिकित्सा कालांतर में काल के गर्भ में खो गई।
अक्षय उर्जा :
अक्षय उर्जा (Renewable Energy) में वे सारी ऊर्जा सम्मिलित  हैं जो प्रदूषक नहीं हैं तथा जिनके स्रोत का क्षय नहीं होता, या जिनके स्रोत का पुनः-भरण होता रहता है।  सौर ऊर्जा , पवन ऊर्जा , जल विद्युत ऊर्जा , ज्वर भाटा से प्राप्त ऊर्जा, जैव ईंधन तथा बायोमास आदि नवीकरणीय उर्जा के कुछ उदाहरण हैं। आज ऊर्जा आधुनिक जीवन शैली का अविभाज्य अंग बन गयी है। ऊर्जा के बिना आधुनिक सभ्यता के अस्तित्व की कल्पना कर सकना भी संभव नहीं है तथा इसी कारण यदि ऊर्जा को आधुनिक युग का मूल व आधारभूत स्तंभ कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।वस्तुतःअक्षय ऊर्जा, अक्षय विकास का ऐसा प्रमुख स्तम्भ तथा विकल्प है जो लगभग असीमित है।ऊर्जा का पर्यावरण से सीधा सम्बन्ध है। ऊर्जा के परम्परागत साधन (कोयला, गैस, पेट्रोलियम आदि) सीमित मात्रा में होने के साथ-साथ पर्यावरण के लिये बहुत हानिकारक हैं। दूसरी तरफ ऊर्जा के ऐसे विकल्प हैं जो पूरणीय हैं तथा जो पर्यावरण को कोई हानि नहीं पहुंचाते।अक्षय ऊर्जा स्रोत वर्षपर्यन्त अबाध रूप से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने के साथ साथ सुरक्षित, स्वत:स्फूर्त व विश्वसनीय हैं। साथ ही इनका समान वितरण भी संभव है। भारत में अपार मात्रा में जैवीय पदार्थ, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बायोगैस व लघु पनबिजली उत्पादक स्रोत हैं। २1वीं शताब्दी का स्वरूप जीवाश्म ऊर्जा के बिना निर्धारित होने वाला है जबकि २०वीं शताब्दी में वह जीवाश्म ऊर्जा द्वारा निर्धारित किया गया था। पूरे विश्व में, कार्बन रहित ऊर्जा स्रोतों के विकास व उन पर शोध अब प्रयोगशाला की चाहरदीवारी से बाहर आकर औद्योगिक एवं व्यापारिक वास्तविकता बन चुके हैं।हमारे देश का अपारम्परिक ऊर्जा कार्यक्रम विश्व के विशालतम कार्यक्रमों में से एक है। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रौद्योगिकी, बायोगैस, समुन्नत चूल्हों, बायोमास, गैसीफायर, शीघ्र बढ़ने वाली वृक्ष-प्रजातियां, जैवीय पदार्थ का दहन एवं सह-उत्पादन, पवन-चक्कियों द्वारा जल निकासी, वायु टर्बाइनों द्वारा शक्ति का उत्पादन, सौर तापीय व फोटो वोल्टायिक प्रणालियाँ, नागरीय घरेलू तथा औद्योगिक अवजल व कचरे से ऊर्जा उत्पादन, हाइड्रोजन ऊर्जा, समुद्री ऊर्जा, फुएल सेल, विद्युत चालित वाहन (बसें) व परिवहन के लिए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर कार्य हो रहा है।आने वाले कुछ हजार वर्षों में ही हमारे परम्परागत ऊर्जा स्रोत समाप्त हो जायेंगे। जिसे बनाने में प्रकृति ने लाखों वर्ष लगाएं है उसे हम अत्यंत अल्प समय में ही समाप्त कर देते हैं। पर्यावरणीय प्रदूषण, सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक दबाव इस समस्या को और गंभीर बनाते हैं। वस्तुतः अक्षय ऊर्जा स्रोतों का विकास, अधिकतम प्रयोग तथा इस हेतु दृढ़ इच्छा शक्ति का होना वर्तमानतः आधुनिक विश्व की महती आवश्यकता है। 

1 comment:

  1. Goyal Energy Solution (GES) is a leading name in the coal trading, coal mines, steel grade coal in north east India.

    Coal India





















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