Friday 10 August 2012

जल, जीवन,एवं पशुधन - डॉ रमेश पाण्डेय



जल, जीवन,एवं पशुधन
डॉ रमेश पाण्डेय
सुंदरेसन पशुपालन एवं दुग्धविज्ञान विद्यालय ,
शिआट्स ( विश्वविद्यालयवत ), नैनी, इलाहाबाद -२११००७



पृथ्वी पर उपस्थित प्रत्येक प्राणी की जीवन प्रणाली प्रक्रिया का ५० प्रतिशत से अधिक भाग सीधे जल के माध्यम से ही संचालित होता है I वस्तुतः जल प्रकृति की मूलभूत व्यवस्था के संचालन में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है I प्राकृतिक रूप से उपलब्ध जल पृथ्वी पर  मानव ,पादप एवं पशु क्रियाशीलता संचालन हेतु आधारभूत धुरी एवं प्रमुख क्रांतिक स्रोत के रूप में कार्य करता है I पृथ्वी पर जल की सम्पूर्ति प्राकृतिक जलीय चक्र के माध्यम से होती होती है जिसके अंतर्गत समुद्री सतह से होने वाली वाष्पोत्सर्जन व्यवस्था ही “स्थल – वायुमंडल - जलीय चक्रण ” का प्रमुख आधार सृजित करती  है I वाष्पोत्सर्जन पुनः इस जल को वर्षण , हिमपात तथा अन्यान्य  माध्यमों  द्वारा समुद्र एवं अन्यान्य जलस्रोतों तक  सम्पूरित कर देता है ( यू. एस. भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण,२००५) I प्राकृतिक रूप से उपलब्ध ताजा जल विभिन्न प्रकार यथा : पेयजल , सिंचाई जल ,औद्योगिक अनुप्रयोगार्थ जल, ऊर्जा उत्पादनार्थ प्रयुक्त जल तथा अन्य बहुगुणित प्रकार से उपयोग किया  जाता है I वस्तुतः ताजा जल ; विकास, खाद्य सुरक्षा , जीवकोपार्जन , औद्योगिक विकास एवं पर्यावरणीय स्थिरता का प्रमुख आधारभूत स्तंभ है पर  चिंता का विषय यह है कि ताजे जल की उपलब्धतता अत्यंत सीमित है I पृथ्वी पर उपलब्ध समस्त जलस्रोतों का मात्र २.५ प्रतिशत ताजे जल के रूप में एवं  ९६.५ प्रतिशत समुद्री जल के रूप में उपलब्ध है Iसमस्त ताजे जल का ७० प्रतिशत भाग हिम तथा हिमनदों के रूप में मनुष्य , पौधों तथा पशुओं हेतु अनुपलब्ध स्रोत में संचित रहता है ( यूनेस्को,२००५ ) I प्रत्येक वर्ष ११०००० घन कि.मी.    ताजा जल वर्षण के रूप में धरती पर वापस आता है पर इसमें से ७०००० घन कि.मी.   जल पुनः वाष्पोत्सर्जन द्वारा वातावरण में मिल जाता है   I शेष बचे घन ४०००० कि.मी.   जल में से मात्र  १२५०० घन कि.मी.  जल ही मानव उपभोग हेतु शेष बचता है I कृषि प्रणाली ताजे जलस्रोतों का अधिकाधिक उपभोग करती है I सन् २००० में कृषि प्रणाली को  समस्त उपलब्ध वैश्विक ताजे जल की ७० प्रतिशत मात्र के  उपयोग एवं सकल जल क्षरण के ९३ प्रतिशत हेतु उत्तरदायी ठहराया गया I पिछली शताब्दी की तुलना में वर्तमान  शताब्दी में सिंचित क्षेत्र में अनुमानतः ५ गुणा वृद्धि अंकित की गयी है जो  सन् २००३ में २७.७ करोड़ हेक्टेयर तक के  सिंचित क्षेत्र तक पहुँच गयी  थी ( विश्व खाद्य संगठन,२००६ बी) I यहाँ यह भी ज्ञातव्य हो कि पिछली दशाब्दियों में ताजे जल के औद्योगिक एवं घरेलू उपभोग की मात्रा में कृषि की तुलना में अधिक वृद्धि अंकित की गयी है I  सन् १९५० एवं १९९५ के मध्य ताजे जल के औद्योगिक एवं घरेलू उपभोग की मात्रा में  ४ गुणा तथा कृषि जन्य गतिविधियों के अंतर्गत २ गुणा वृद्धि पायी गयी I आज प्रति व्यक्ति अपने दैनन्दिन उपयोग हेतु औसतन ३०-३०० लीटर जल का उपयोग करता है जबकि उसी व्यक्ति की  प्रतिदिन की खाद्य आवश्यकता की आपूर्ति  अन्न, सब्जियों ,दूध तथा मांस  उत्पादन द्वारा करने के लिये  औसतन प्रतिदिन  ३००० लीटर अतिरिक्त जल की आवश्यकता पड़ती है (टर्नर एवं साथी ,२००४) I सन् २०२५ तक वैश्विक जल के दोहन में २२ प्रतिशत ( ४७७२ घन कि.मी.   ) की वृद्धि अनुमानित है जिसकी प्राप्ति हेतु मानव संघर्ष एवं परस्पर युद्ध भी सम्भावित है I इस चर्चा के तकनीकी पहलुओं पर चर्चा के पहले आइये तनिक जल का सामान्य परिचय प्राप्त कर लेते हैं I
जल : एक संक्षिप्त परिचय
Ø हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन का  द्रव रूप में रासायनिक सूत्र H2O द्वारा अभिव्यक्त यौगिक वैश्विक स्तर पर जल के रूप  में जाना – पहचाना जाता है I जल की  यौगिकीय इकाई ऑक्सीजन के एक तथा हाइड्रोजन के दो सह्संयोजी बंधों से बनती है I
Ø शुद्ध जल रंगहीन तथा स्वादहीन पारदर्शी द्रव है जिसमें शून्य कैलोरी पायी जाती है I जल में उपस्थित ऑक्सीजन अणु के अत्यंत अल्प मात्रा में ऋणात्मक आवेशयुक्त  तथा हाइड्रोजन अणुओं के धनात्मक आवेशयुक्त होने के कारण जल एक ऐसा ध्रुवीय यौगिक है जिसमें द्विध्रुवीय विद्युत गतिशीलता पायी जाती है Iशुद्ध जल में पायी जाने वाली अल्प विद्युत संवाहकता उसमें आयनिक पदार्थों यथा : नमक ( NaCl ) के मिलाने पर बढ़ जाती है I
Ø  यह प्रकृति में पदार्थ की तीन मूल दशाओं यथा: ठोस (बर्फ़), द्रव (जल) एवं वाष्प   (जलवाष्प तथा बादल ) में  पाया जाता है Iजल का क्वथनांक अन्य द्रवों की भांति ही वायुदाब पर निर्भर करता है तथा इसी कारण जल माउन्ट एवरेस्ट पर ६८ डिग्री सेंटीग्रेड पर तथा समुद्रतल पर १०० डिग्री सेंटीग्रेड पर उबलता है I
Ø ४१८१.३ J /(Kg.K) पर जल में विशिष्ट उच्च ताप क्षमता तथा उच्च वाष्पन ताप ( ४०.६५ KJ.mol-1 ) पाया जाता है जिसकी सहायता से जल  पृथ्वी की जलवायु में तापक्रम की अस्थिरता नियंत्रण हेतु प्रभावी प्रतिरोधक का कार्य करता है  I
Ø जल का अधिकतम घनत्व ३.९८ डिग्री सेंटीग्रेड पर पाया जाता है Iठोस दशा में परिणत होने पर यह ९ प्रतिशत अधिक स्थान घेरता है  I४ डिग्री सेंटीग्रेड  पर बर्फ़ का घनत्व ९१७ किग्रा./घन मी. तथा द्रव रूप में जल का घनत्व १००० किग्रा./घन मी.होता है I
Ø जल एक अति उत्तम विलायक है तथा इसी कारण इसे सार्वभौमिक विलायक की संज्ञा भी दी गयी है Iजल में लवण,शर्करा,अम्ल ,क्षार तथा विभिन्न गैसों यथा: ऑक्सीजन,कार्बन डाई ऑक्साइड आदि को स्वयं में विलयित कर लेने की अद्भुत क्षमता पायी जाती है Iकोशिकाओं के प्रमुख अवयव जैसे: प्रोटीन, डी.एन.ए. तथा पॉलीसैकराइड्स आदि भी जल में विलेय होते हैं I
Ø पृथ्वी के अतिरिक्त जल की उपस्थिति जलवाष्प के रूप में अन्य ग्रहों पर भी  पायी गयी है I बुध ग्रह के वातावरण में ३.४ प्रतिशत ,शुक्र ग्रह के वातावरण में .००२ प्रतिशत, मंगल के वातावरण में  .०३ प्रतिशत, तथा बृहस्पति के वातावरण  में  .०००४ प्रतिशत  मात्रा में जलवाष्प  की उपस्थिति अनुमानित है जबकि शनि के वातावरण में   मात्र बर्फ़ के रूप में ही जल उपलब्ध है  I
Ø जुलाई २०११ की एक रिपोर्ट ने एक अति विशाल बादल की खोज का उल्लेख किया है जिसमें धरती के समस्त महासागरीय जल  की तुलना में १४० करोड़ गुणा अधिक जल ,जलवाष्प के रूप में उपस्थित है I यह अति विशाल  बादल धरती से लगभग १.२० करोड़ प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है तथा शोधकर्ताओं के अनुसार इस खोज से इस बात को बल मिलता है कि ब्रह्माण्ड में जल इसके उद्भव के साथ ही उपलब्ध रहा है I
Ø विश्व के समस्त धर्मों में जल एक आत्मिक तथा शारीरिक शुद्धीकरण का माध्यम माना गया है I जल को सनातन हिंदू धर्म में आचमन, पूजन तथा पापों से शुद्धीकरण हेतु, ईसाई धर्म में धार्मिक स्नान तथा बपतिस्मा हेतु एवं इस्लाम धर्म में पाँचों समय की नमाज अदा करने से पहले शरीर के कुछ भागों को पानी से धोने ( वुजू ) तथा इस्लाम धर्म ग्रहण के पहले  गुसल के लिये प्रयोग किया जाता है Iइसी प्रकार यहूदी, पारसी , शिंतो, ताओ, सिख तथा अनेकानेक अन्य धर्मों में भी  जल का प्रयोग धार्मिक क्रियाकलापों का अति अनिवार्य अंग है I
पशुधन एवं जल उपभोग अंतर्संबंध:
पशुधन द्वारा जल स्रोतों के उपभोग पर प्रायः अत्यंल्प परिचर्चा की जाती है जबकि पशुपालन एवं कृषि एक दूसरे से अटूट रूप से आबद्ध उपांग हैं I
पशुधन की जल आवश्यकता :
स्रोत: ल्यूक,२००३(राष्ट्रीय शोध परिषद ,१९८५,८७,९८ एवं २०००) तथा रंजन,१९९८
पशु प्रजाति

दैहिक दशा
औसत शरीर भार (किग्रा०)
तापक्रम (डिग्री सेंटीग्रेड में )
१५            २५             ३५
जलमाँग(लीटर प्रति पशु/दिन)
गोवंश
घुमंतू दूध देने वाली अफ्रीकी गाय (२ ली. प्रतिदिन)
बड़ी नस्ल की गाय (शुष्क एवं २७९ दिन की गर्भिणी )
बड़ी नस्ल की गाय (३५ ली. प्रतिदिन दूध देने वाली  )
२००
६८०
६८०
२१.८         २५            २८.७
४४.१         ७३.२          १०२.३
१०२.८        ११४.८         १२६.८
बकरी
२ ली. प्रतिदिन दूध देने वाली
२७
७.६          ९.६           ११.९
भेंड़
०.४ ली. प्रतिदिन दूध देने वाली
३६
८.७          १२.९          २०.१
ऊँट
४. ली. प्रतिदिन दूध देने वाली
३५०
३१.५         ४१.८          ५२.२
मुर्गी
व्यस्क ब्रायलर मुर्गा -१००
अंडे वाली मुर्गी -१००

१७.७         ३३.१            ६२
१३.२     २५.८        ५०.५
शूकरी
दूध देने वाली तथा २०० ग्राम प्रतिदिन शरीर भार ग्रहण करने वाली
१७५
१७.२     २८.३        ४६.७

पशुधन को  पीने  के अतिरिक्त अन्यान्य गतिविधियों यथा नहलाने हेतु ,स्वच्छ व गुणवत्तापरक दूध, मांस ,अंडा उत्पादन हेतु, अपशिष्ट पदार्थों के समुचित निष्तारण हेतु तथा उत्पादों को शीतल रखने हेतु भी जल की आवश्यकता होती है Iविशेष रूप से शिशु शूकरों को जन्म देने के बाद मादा शूकर की पीने के अतिरिक्त अन्यान्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सात गुणे तक अतिरिक्त जल की आवश्यकता हो सकती है I इसी प्रकार भारतीय उपमहाद्वीप की भैसों को अपने शरीर को ठंडा रखने के लिये अत्यधिक मात्रा में जल की अतिरिक्त आवश्यकता पड़ती है क्योंकि उनके शरीर पर पसीने की ग्रंथियाँ अत्यंत अल्प अथवा नहीं ही पायी जाती हैं I इस कारण भैसों में  समुचित प्रजनन कराने  तथा अधिक दूध उत्पादन लेने हेतु उनके शरीर के  तापमान को जल , फुहारे  के प्रयोग अथवा पोखर आदि  में लुढकने देने के द्वारा नीचे रखना अत्यंत आवश्यक होता है I वैसे वैश्विक  स्तर पर पशुधन द्वारा पेय जल तथा अन्यान्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विश्व के समस्त ताजे जल अनुप्रयोग का मात्र ०.६ प्रतिशत ही प्रयोग में लाया जाता है I प्रायः समस्त विशेषज्ञ इसी आंकड़े के परोक्ष प्रकाश में वैश्विक  स्तर पर पशुपालन क्षेत्र द्वारा जल उपयोग की मात्रा को नगण्य ही मानते हैं जबकि वास्तविकता इससे इतर है क्योंकि इस आंकड़े में पशुधन क्षेत्र की अपरोक्ष जल आवश्यकताओं यथा: चारा तथा दाना उत्पादन ; दूध,मांस,अंडा तथा अन्य खाद्य प्रसंस्करण , खाद्य शीतलन , वधशाला गुणवत्ता नियंत्रण , चर्म उद्योग   तथा  स्वच्छता अनुपालन इत्यादि को सम्मिलित नहीं किया गया है I इस प्रकार वैश्विक स्तर पर मानव द्वारा उपयोग किये जाने वाले  समस्त जल  का लगभग ८ प्रतिशत से अधिक पशुधन क्षेत्र द्वारा प्रयोग किया जाता है I
अब इस चर्चा के तकनीकी कारण – प्रभाव पक्ष से इतर तनिक जल के मनुष्य एवं पशुधन हेतु इसके महत्त्व की चर्चा करना भी समीचीन रहेगा I
जल का पशुधन एवं मनुष्यों  हेतु परोक्ष महत्त्व:
Ø जल दुधारू पशुओं तथा मनुष्यों  हेतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण पोषक तत्व है क्योंकि इसकी कमी शरीर में किसी अन्य पोषक तत्व की तुलना में शीघ्र मृत्यु का कारण बन सकती है I मनुष्य  तथा गोवंशीय पशुओं के शरीर का ५६-८१ प्रतिशत भाग जल से बना होता है तथा शरीर में जल की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित रहने पर ही जीवन प्रणाली भलीभाँति काम करती है I विभिन्न पालतू पशु भोजन के बिना  लगभग साठ दिनों तक जीवित रह सकते हैं जबकि जल की अनुपस्थिति में उनकी जीवन प्रक्रिया सामान्यतः मात्र सात दिनों तक ही चल सकती है I
Ø शरीर में जल एक अद्भुत विलायक का कार्य करता है I शरीर के विभिन्न भागों में विभिन्न पोषक तत्वों का स्थानांतरण ,शरीर के बाहर अवशिष्ट पदार्थों का निस्तारण ,विभिन्न उपापचयी प्रक्रियाओं का सम्पादन तथा शरीर का तापमान नियंत्रण आदि आवश्यक जैवकीय प्रणालियाँ जल की सहायता से ही संपन्न होती हैं I
Ø वस्तुतः शरीर के भीतर चलने  वाली प्रत्येक प्रक्रिया जल की सहायता से ही पूरी हो पाती है चाहे वह पाचन प्रणाली हो या रक्त परिसंचरण व्यवस्था I जल के एक आरामदायक गद्दी के रूप में कार्य करने के कारण ही पशुओं तथा  हमारी अस्थियों के जोड़ सुचारुरुपेण काम  कर पाते हैं I इसके अतिरिक्त जल की सहायता से ही पशु तथा हम  मनुष्य भलीभाँति देख तथा सुन पाते हैं I
Ø बहुसंख्य पशु तथा हम मनुष्य पसीने , मूत्र  तथा हाँफने के माध्यम से अपने शरीर से जल का निस्तारण करते हैं जिसके   फलस्वरुप हमारे शरीर का तापक्रम नियंत्रित रह पाता है I शरीर में हुई जल की इस कमी  को वापस पानी पी कर  तथा भोजन के माध्यम से वापस लौटाया जाता है I गर्मी अधिक पड़ने पर शरीर से पसीने आदि के द्वारा  जल ह्रास अधिक होने के  कारण ही गर्मियों में प्यास अधिक लगने लगती है I
Ø अधिकतर दुधारू पशु जितना खाद्य दिन भर में ग्रहण करते है उसका २-३ गुणा अधिक पानी पानी पीते हैं I दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होने , पशु के गर्भवती होने ,नर पशुओं के बोझा ढोने व कृषि कार्य में संलग्न होनें तथा गर्मी बढने पर शरीर की जल माँग और अधिक बढ़ जाती है I
Ø समस्त पशु तथा मनुष्य शरीर में जल की कमीं होने पर दबाव की स्थिति में जाते हैं जिससे उनका प्रदर्शन, उत्पादन, प्रजनन तथा कार्यक्षमता कुप्रभावित हो जाती है I
Ø शरीर में होने वाला प्रोटीन तथा कार्बोज का उपापचय भी जल की सहायता से ही हो पाता है I
Ø अधिक शरीर भार वाले तथा कोष्ठबद्धता से पीड़ित मनुष्यों के लिये अधिक मात्रा में जल का नियमित सेवन लाभदायक होता है Iडॉ. डोनाल्ड रोबर्टसन नें अपनी बहुचर्चित पुस्तक “ Snowbird Diet ” के द्वारा मोटे लोगों को वजन कम करने के लिये अत्यधिक मात्रा  में जल का सेवन करने की सलाह दी है I
जल, पशुधन, मानव तथा पर्यावरण  अंतर्सम्बन्ध :
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अद्यतन आंकड़ों के अनुसार वैश्विक स्तर पर पशुधन क्षेत्र द्वारा मनुष्य के समस्त जल उपयोग का ८ प्रतिशत से कुछ अधिक उपभोग किया जाता है I इस जल उपयोग का अधिकतम भाग (मनुष्य के समस्त जल उपयोग का ७ प्रतिशत ) पशुओं हेतु चारा उत्पादन में व्यय होता है I एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार वैश्विक स्तर पर प्रति वर्ष पशुधन द्वारा लगभग ५०० करोड़ घन मीटर से अधिक जल का मात्र जीवन रक्षक आहार उत्पादन हेतु  उपयोग किया जाता है I ध्यान देने योग्य बिंदु यह है कि पशुओं से अधिकधिक उत्पादन प्राप्त करने की व्यावसायिक होड़ के कारण  जल की यह आवश्यक मात्रा दोगुनी से भी अधिक हो जाती है जबकि पशु द्वारा उसकी पानी पीने की आवश्यकता हेतु इसका दो प्रतिशत ही पर्याप्त होता है I सन् २००४ में टाइम्स आफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार एक लीटर दूध के उत्पादन हेतु लगभग ३००० लीटर जल की आवश्यकता होती है और भारत में अधिक अन्न ,चारा तथा  दूध उत्पादन की व्यावसायिक होड़ के कारण भूमि तथा भू जल का अत्यधिक दोहन भू जल के उत्तरोतर नीचे जाने के लिये उत्तरदायी हो रहा है I गुड्लैंड तथा पिमेंटल (२००५ ) के अनुसार विदेशों में दाना खिला कर मांस हेतु पाले जाने गोवंशीय पशु से एक किलो मांस प्राप्त करने के लिये एक लाख लीटर जल की आवश्यकता होती है जबकि एक किलो आलू उत्पादन हेतु मात्र ५०० लीटर जल ही पर्याप्त  होता है I हालाँकि SIWI तथा अन्य (२००५) मांस हेतु पाले जाने गोवंशीय पशु से एक किलो मांस प्राप्त करने के लिये १५०००  लीटर जल की आवश्यकता ही पर्याप्त बताते हैं I वास्तविक आंकड़ा चाहे जो हो पर यह तो सत्य है कि प्रति किलो अन्न या वनस्पति उत्पादन हेतु आवश्यक जल की मात्रा तथा प्रति किलो मांस उत्पादन हेत आवश्यक जल  की मात्रा में भारी अंतर है I सत्य तो यह है कि हम मनुष्य अपनी व्यावसायिक क्षुधापूर्ति हेतु जल तथा प्रकृति का अनुचित तथा अत्यधिक दोहन कर भविष्य की अपनी ही संतानों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं I इसी क्रम में ज्ञातव्य हो कि पशुधन से अधिकाधिक उत्पादन प्राप्त करने की होड़ ने जल प्रदूषण में उल्लेखनीय वृद्धि कर डाली है I पेय जल में प्राप्त नत्रजन तथा फास्फोरस की कुल मात्रा का क्रमशः ३२ तथा ३३ प्रतिशत उसमें पशु मूत्र व अन्य निस्तारित अवशेषों  के मिलने के कारण जल प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण कारण बन जाता है I इसी प्रकार पशुधन व्यवसाय जल में कीटनाशियों, एंटीबायोटिक्स तथा  भारी धातुओं की उपस्थिति के लिये भी कुछ सीमा तक उत्तरदायी है Iवस्तुतः मनुष्यों द्वारा कृषि भूमि – पशुधन उपभोग एवं प्रबंधन द्वारा अपनी लिप्सा पूर्ति हेतु अंतिम सीमा रेखा से भी परे जा कर दोहन करने का अनुचित व अनर्गल प्रयास ही जल-पृथ्वी-पर्यावरण असंतुलन एवं प्रदूषण का एकमात्र प्रभावी कारण  है I
इस परिचर्चा का समापन कुछ वैदिक ऋचाओं तथा मन्त्रों के माध्यम से करना चाहूँगा जिनकी सहायता से  तात्कालिक ऋषियों तथा मनुष्यों के जल के प्रति आदर , अनुग्रह तथा कर्तव्यबोध अभिव्यक्त होता है जो वर्तमान मनुष्यों की स्वार्थवृत्ति से नितांत अलग है I
Ø आपो देवता :
     वेदों में जलको देवता माना गया है। उन्हें  जल न कहकर आपःया आपो देवताकहा गया है। ऋग्वेदके पूरे चार सूक्त आपो देवात को समर्पित हैं।
Ø जल संदर्भित कुछ वैदिक मन्त्र :
·        अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्।। पृञ्चतीर्मधुना पयः।।
     यज्ञ की इच्छा करने वालों के सहायक मधुर रस जल-प्रवाह, माताओं के सदृश पुष्टिप्रद हैं। वे दुग्ध को पुष्ट करते हुए यज्ञ-मार्ग से गमन करते हैं।
·        अमूया उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह।। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम्।।
     जो ये जल सूर्य में (सू्र्य किरणों में) समाहित हैं। अथवा जिन (जलों) के साथ सूर्य का सान्नध्य है, ऐसे ये पवित्र जल हमारे यज्ञको उपलब्ध हों।
·        अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः।। सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः।।
     हमारी गायें जिस जल का सेवन करती हैं, उल जलों का हम स्तुतिगान करते हैं।      अन्तरिक्ष एवं भूमि पर प्रवहमान उन जलों के लिए हम हवि अर्पित करते हैं।
·        अप्स्व अन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये।। देवा भवत वाजिनः।।
     जल में अमृतोपम गुण है। जल में औषधीय गुण है। हे देवो! ऐसे जल की प्रशंसा      से आप       उत्साह प्राप्त करें।
·        अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।। अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः।।
मुझ (मंत्रदृष्टा ऋषि) से सोमदेव ने कहा है कि जल में (जलसमूह में) सभी औषधियाँ समाहित हैं। जल में ही सर्व सुख प्रदायक अग्नि तत्व समाहित है। सभी औषधियाँ जलों से ही प्राप्त होती हैं।
·        आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वे 3 मम।। ज्योक् च सूर्यं दृशे ।।
     हे जल समूह! जीवनरक्षक औषधियों को हमारे शरीर में स्थित करें, जिससे हम निरोग       होकर चिरकाल तक सूर्यदेव का दर्शन करते रहें।।
·        इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि।। यद्वाहमभिदु द्रोह यद्वा शेप उतानृतम्।।
     हे जलदेवों! हम (याजकों) ने अज्ञानतावशं जो दुष्कृत्य किये हों, जानबूझकर किसी      से द्रोह किया हो, सत्पुरुषों पर आक्रोश किया हो या असत्य आचरण किया हो तथा इस प्रकार के हमारे जो भी दोष हों, उन सबको बहाकर दूर   करें।।
·        आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि।। पयस्वानग्न आ गहि तंमा सं सृज वर्चसा ।।
     आज हमने जल में प्रविष्ट होकर अवमृथ स्नान किया है। इस प्रकार जल में प्रवेश    करके हम रस से आप्लावित हुए हैं। हे पयस्वान्! हे अग्निदेव! आप हमें वर्चस्वी    बनाएँ।       हम आपका स्वागत करते हैं।
·        शतपवित्राः स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पाथः।। ता इन्द्रस्य न मिनन्तिं व्रतानि सिन्धुभ्यो हण्यं घृतवज्जुहोत।।
     ये जलदेवता हर प्रकार से पवित्र करके तृप्ति सहित प्राणियों में प्रसन्नता       भरते हैं। वे   जलदेव यज्ञ में पधारते हैं, परन्तु विघ्न नहीं डालते। इसलिए नदियों के निरंतर      प्रवाह के लिए यज्ञ करते रहें।
·        याः सूर्यो रश्मिभिराततान याम्य इन्द्री अरदद् गातुभूर्मिम्।। तो सिन्धवो वरिवो धातना नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।।
     जिस जल को सूर्यदेव अपनी रश्मियों के द्वारा बढ़ाते हैं एवं इन्द्रदेव के द्वारा जिन्हें   प्रवाहित होने का मार्ग दिया गया है, हे सिन्धो (जल प्रवाहों)! आप उन जलधाराओं से हमें धन-धान्य से परिपूर्ण करें तथा कल्याणप्रद   साधनों से हमारी रक्षा करें।



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